Bharat of Future - An RSS Perspective (Day 2)

Rashtriya Swayamsevak Sangh    19-Sep-2018
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द्वितीय दिवस दिनांक 18-09-2018
 
श्री मोहन भागवत जी
 


 
मंच पर उपस्थित माननीय संघचालकगण। उपस्थित सभी महानुभावों, माताओं, बहनों। कल हमने देखा कि किस प्रकार और किस कार्य के लिए संघ की स्थापना हुई। और उसकी कार्यपद्धति कैसी है। व्यक्ति निर्माण का कार्य है, व्यक्ति निर्मित होने के बाद समाज में वातावरण बनाते हैं। समाज के आचरण में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं और ये पूरा स्वावलम्बी पद्धति से और सामूहिकता से चलने वाला काम है और मन मर्जी का काम है। इसमें आना-जाना बिना शुल्क है और कोई जबरस्ती का मामला चल भी नहीं सकता क्योंकि जबदस्ती करने के लिए हाथ में कुछ है नहीं, अपनी दोस्ती ही केवल है। अब जैसे-जैसे कार्य बढ़ता है तो स्वयंसेवकों को शिक्षा मिली है कि संघ केवल एक ही काम करेगा व्यक्ति निर्माण का, लेकिन स्वयंसेवक समाज के हित में जो-जो करना पड़ेगा वो करेगा। शक्ति बढ़ती है तो संघ चलाने के लिए जितने स्वयंसेवक हैं उनको छोड़कर बाकी स्वयंसेवक खाली तो नहीं बैठते। समाज में उनको जो समझ में आता है उसके अनुसार वो किसी न किसी कार्य को हाथ में लेते हैं। कोई और कर रहा है उसके अनुशासन में उसके साथ जुट जाते हैं। अच्छा अपना तो नया काम खड़ा करते हैं। ऐसे समाज-जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में स्वयंसेवकों ने कार्य खड़े किए, विविध संगठन हैं। वो सब स्वतंत्र, अलग, स्वायत्त, स्वावलम्बी हैं। संघ के किसी बैठक के निर्णय से कोई भी संगठन नहीं चला। वो स्वयंसेवकों का अपना किया हुआ है और वो अपने भरोसे उसको चलाते हैं। सहयोग चलता है, स्वाभाविक चलता है, परिचय है, स्वयंसेवक हैं सब तो विचार की दृष्टि उनको मिली है, संस्कार मिला है तो संघ में परिचय है तो आना-जाना चलता है, परामर्श चलता है, साथ देना भी चलता है। संघ के स्वयंसेवकों को यह भी सीख है कि अच्छे काम में कौन कर रहा है यह मत देखो, वो अपना समर्थक है कि विरोधी है ये मत देखो, अगर वो प्रामाणिकता से कर रहा है, समाज की भलाई के लिए कर रहा है तो उसमें सहयोग करना चाहिए। उसके अनुसार स्वयंसेवकों का सहयोग मिलता रहता है। जैसा मैंने कल कहा समन्वय बैठक योजना तय करने के लिए नहीं होती, समन्वय बैठक ऐसा करने वाले स्वयंसेवकों को, जो संघ के बाहर क्षेत्रों में काम करते हैं उनको अपने स्वयंसेवकत्व का वातावरण मिले इसलिए आयोजित की जाती है। ये मैं थोड़ फिर से इसलिए बता रहा हूं कि बहुत बार प्रश्न आता है कि राजनीति से क्या है? संघ की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है क्या? क्योंकि लगभग जमाने का चलन ऐसा दिखता है कि व्यक्ति समर्थ बन जाता है और सामर्थ्य जहां से प्राप्त किया उस क्षेत्र में कुछ कर लेता है। आगे उसकी इच्छा, राजनीति में जाने की होती है। लेकिन संघ को सम्पूर्ण समाज को जोड़ना है और राजनीति समाज-जीवन के अनेक विषयों को देखती है तो उन विषयों में मतभेद होते ही हैं, होना स्वाभाविक भी है। विचार अलग-अलग प्रकार के रहते हैं और दलबंदी हो जाती है, दल अलग-अलग बन जाते हैं तो विरोध भी खड़ा हो जाता है। राजनीति दल और सारे समाज का जुड़ना ये कुछ ही मात्रा में एक साथ चल सकते हैं बहुशः दल अलग-अलग हो जाते हैं। और इसलिए संघ के जन्म से ही संघ ने ये निश्चित किया है कि राजनीति से हमारा संगठन दूर रहेगा। स्पर्धा की राजनीति नहीं करेगा, चुनाव नहीं लड़ेगा, संघ का कोई भी पदाधिकारी किसी भी राजनीति दल में पदाधिकारी बिलकुल नहीं बन सकता और चुनाव की, वोटों की इस राजनीति से संघ को दूर रहना है। डॉ. हेडगेवार स्वयं एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे और बहुत कुशल राजनीतिक कार्यकर्ता थे। उनकी विद्यार्थी दशा में कलकत्ता में उन्होंने एक कागज़ी आंदोलन चलाया और अंग्रेज सरकार का एक प्रस्ताव पराभूत कर दिया। ये जो राष्ट्रीय विद्यालय और कालेज चल रहे थे आन्दोलनकारी छात्रों के लिए तो उनको मिलने वाला प्रमाण पत्र, डिग्री इसको अवैध करने का कानून अंग्रेज सरकार ला रही थी। अब समाज में बड़ा आन्दोलन इस विषय को लेकर खड़ा करना संभव नहीं था। तो डॉक्टर हेडगेवार ने कलकत्ते में घूमघूमकर हर एक बस्ती के प्रमुख लोगों से बातचीत की और उनको इतना बताया कि अगर कोई आपको आकर पूछे कि आपके यहाँ इस प्रस्ताव के विरोध में कोई सभा हुई तो आप कहिये हाँ, आप गये थे मैं गया था, किस किस के भाषण हुए, अलग-अलग नाम दिये इनके भाषण हुए बताना। और क्या हुआ और बहुत भीड़ थी और एकमत से पारित हो गया कि ये डिग्रियां बरकरार रखनी चाहिए। ऐसा बताया और फिर समाचार पत्र में समाचार छपवाये कि अमुक मोहल्ले में सभा हुई, 3000 लोग थे, भाषण हुआ और प्रस्ताव आया और सरकार के खिलाफ प्रस्ताव एकमत से पारित हो गया। ऐसे समाचार लगातार प्रकाशित होने का पता चला तब ब्रिटिशों के कान खड़े हो गये। उन्होंने अपने लोग भर लिये पूछने के लिये। तो सबको प्रमाण मिले ऐसी सभायें हुई थीं। लेकिन रिपोर्ट जो गई सरकार के पास कि इसके बारे में बहुत बड़ा जन असंतोष है, इसको करेंगे तो असंतोष का एक कारण और, हमने आ बैल मुझे मार के तर्ज पर बुलाया ऐसे हो जायेगा। इसलिये उस कानून को सरकार ने लाया नहीं। ऐसे कुशल वो राजनेता थे और विदर्भ में काम करते समय प्रमुखता से उनका नाम सबके सामने आता था विशेषकर तरुण वर्गों में बहुत लोकप्रिय था। स्वयं तरुण आयु के थे। लेकिन संघ का काम सम्पूर्ण समाज को जोड़ने का काम है इसलिये अपने जन्म से ही संघ ने स्वयं तय किया है कि ऐसी जो दिन ब दिन की रोजमर्रा राजनीति है उसमें हम नहीं जायेंगे । हमारे मत है। संघ की विचारधारा के नाते संघ के स्वयंसेवकों के मत हैं। नीति के बारे में मत है। कौन राज्य करे ये तो चुनाव जनता करती है परन्तु कैसा चले राष्ट्रहित में, इस राष्ट्रनीति के बारे में हमारे मत हैं और हम पहले से बोलते हैं सार्वजनिक रूप से बोलते हैं और जितना शक्ति है उतना उसके अनुसार हो इसका प्रयास भी करते हैं। वो प्रयास हमारा लोकतांत्रिक रीति से ही होता है। संघ को राजनीति से परे भेजे इसका मतलब वो घुसपैठियों के बारे में न बोले ऐसा नहीं है। यह सब राष्ट्रीय प्रश्न है। राजनीति की उसमें भूमिका है। प्रमुख भूमिका है परन्तु प्रश्नों के सुलझने का न सुलझने का परिणाम पूरे देश पर होता है। ऐसे विषय में संघ अपना मत रखता है। जो एक दल चलता है उस दल में स्वयंसेवक क्यों है। उस दल में बहुत सारे पदाधिकारी क्यों हैं? राष्ट्रपति जी हैं स्वयंसेवक हैं तो इसलिये और ये जो लोग कयास लगाते हैं कि नागपुर से फोन जाता होगा और बात होती होगी बिल्कुल गलत बात है। एक तो वहां काम करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता या तो मेरी आयु के हैं या मेरे से सीनियर हैं और संघ कार्य का जितना मेरा अनुभव है कदाचित उससे कहीं अधिक अनुभव उनको राजनीति का है। उनको अपनी राजनीति चलाने के लिए किसी के सलाह की आवश्यकता नहीं है। हम उसके बारे में कुछ नहीं जानते। हम सलाह दे भी नहीं सकते। परिचित हैं तो हाल-चाल पूछते हैं। उनको सलाह चाहिए तो वह पूछते हैं अगर हम दे सकते हैं तो हम देते हैं। परन्तु उनके राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं। सरकार की नीतियों पर हमारा कोई प्रभाव नहीं है। वो हमारे स्वयंसेवक हैं। उनको विचार दृष्टि सब मिली हैं। वो भी समर्थ हैं अपने अपने कार्यक्षेत्र में उन विचारों को प्रत्यक्ष करने के लिए। ऐसा स्वतंत्रता अलगता स्वायत्ता से स्वावलंबी होकर उनका काम चलता है और चलना चाहिये ऐसा हमारी इच्छा है। देश में देश की व्यवस्था में पावर नाम की जो चीज है उसका जो सेंटर संविधान से तय हुआ है वही रहेगा। कोई बाहर का दूसरा केन्द्र खड़ा हो, ये गलत बात हम मानते हैं। इसलिये ऐसा हम कभी करते नहीं। और इसलिये संघ का राजनीति से सम्बन्ध क्या है? क्यों उसी एक दल में ज्यादा स्वयंसेवक हैं। अब ये तो हमारा प्रश्न नहीं है। बाकी दलों में जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ये उनको विचार करना है। हम किसी स्वयंसेवक को किसी एक विशिष्ट राजनीतिक दल का काम करने के लिए नहीं कहते हैं। राष्ट्र के लिए एक विचार को लेकर, एक नीति का स्वप्न लेकर काम करने वालों के पीछे खड़े हो जाओ ऐसा कहते हैं। वह नीति किसी की भी हो सकती है। ये जरूरी नहीं है कि एक दल की, दूसरे दल की नहीं है नीति। ऐसा नहीं है। ऐसा होता भी है। राष्ट्रहित की सोचकर स्वयंसेवक नागरिक के नाते उनका इतना करते हुए उतना करते हैं। संघ के कार्य में दायित्वधारी कार्यकर्ता राजनीति में बिल्कुल पड़ते नहीं। स्वयंसेवक स्वतंत्र है वह कर भी सकता है उसका मन करे तो नहीं भी कर सकता है। अपने विवेक से स्वयंसेवक चलते हैं रोजमर्रा के जीवन में। ऐसा अपना जो काम चलता है संघ का प्रभाव बढ़ता है तो उसके परिणाम वहाँ भी दिखते हैं, सब क्षेत्र में दिखते हैं वहाँ भी दिखते हैं। ठीक है। हम वो प्रभाव उत्पन्न करने के लिए काम नहीं कर रहे हैं। वो होता है हम क्या करें। तो इस प्रकार और ये संघ का और राजनीति का सम्बन्ध चला है। राष्ट्रनीति के बारे में हम बोलते हैं और हमारी शक्ति है, हम जिसको उचित मानते हैं उसको करवाने की तो उसको हम लगाते जरूर हैं ये हम छुपे-छुपे नहीं करते। ये डंके की चोट पर करते हैं। क्योंकि व्यक्ति निर्माण ये हमारा मुख्य काम है वहीं हम करते हैं। लेकिन जो निर्मित व्यक्ति है वह निठल्ले लोग बैठे नहीं रहेंगे। वे नागरिक हैं देश के। सब लोगों के जैसा उनका भी देश के जीवन के समस्त अंगों में अपना सौभाग्य रहना अपेक्षित है वह रहता है। उसमें किसी दल का स्वार्थ नहीं। किसी विचारधारा के प्रभाव की बात नहीं। केवल भारत हित की राष्ट्रहित का भाव रहता है। किसी के प्रति बैर नहीं और किसी के प्रति अधिक दोस्ती नहीं। ये संघ का स्वभाव है। कल और भी एक उल्लेख आया था। ये जो स्वतंत्र अलग स्वायत्त सम्बन्धी मामला है, महिलाआंे का विचार करते समय भी हमारा विचार ऐसा है। हमारे देश में प्राचीन समय से महिलाओं के बारे में जो विचार है तो उनको अत्यन्त बड़ा स्थान दिया है। शक्ति स्वरूपा, जगदम्बा का रूप हम मानते हैं। एक तरफ विचार में ऐसा है और दूसरी तरफ व्यवहार में देखा तो उनकी हालत बहुत खराब है। अब ये तो ठीक है कि उनको भगवान बनाकर मंदिर में बिठाकर भी पूजने की जरूरत नहीं और उनको एकदम दासता की कड़ी में ठकेलने की भी जरूरत नहीं। वो महिला समाज का एक हिस्सा होने के नाते समाज जीवन के सब प्रयासों में बराबरी की हिस्सेदार है, बराबरी की जिम्मेवार है और उस तरह ही उनके साथ व्यवहार होना चाहिए। लेकिन ये इस ढंग से नहीं होना चाहिए कि बेचारी महिला समाज का हम उद्धार करेंगे। जो देखते हैं हम नित्य अनुभव भी आप लोगों को आता होगा कि कई मामलों में महिलायें पुरुषों से ज्यादा समर्थ हैं। जो काम पुरुष करते हैं उसी काम को वो अधिक अच्छा कर सकती हैं। यह कई क्षेत्रों में आज सिद्ध हो रहा है। उनको सशक्त करने की जरूरत है उनको वो स्वतंत्रता देने की जरूरत और ऐसे काम करने के लिए उनको प्रबुद्ध बनाने की जरूरत है। तो अपने घर से प्रारंभ करके समाज के क्षेत्र तक सर्वत्र मातृशक्ति जागरण का काम होना चाहिए, संघ की इच्छा है। संघ के स्वयंसेवक और संघ के साथ जुड़े हुए परिवारों की महिलायें स्वयंसेवक जो अनेक संगठन चलाती हैं उसमें बराबरी से चल रही महिलायें हैं मिलकर ये काम करती हैं। महिला और पुरुष परस्पर पूरक हैं। जीवन बनना है तो इन दोनों का होना और बराबरी से सारा भार उठाकर काम करना, निर्णय से लेकर तो दायित्व तक सारी बातें बराबरी से उसमें सहभागी होना इसकी आवश्यकता राष्ट्र निर्माण के लिए रहेगी यह संघ का सुविचारित मत है। लेकिन कल बात जहां खत्म हुई थी वहां मैंने कहा था कि वैचारिक अधिष्ठान जिस पर हम चलते हैं उस पर बात करेंगे। तो बात है हिन्दुत्व की। संघ का विचार है हिन्दुत्व का विचार है और संघ का है मतलब संघ ने खोजा हुआ नहीं है। अपने देश में परम्परा से चलता आया हुआ विचार है और थोड़ा सा प्रचार का भ्रमजाल दूर हटाकर हम देखेंगे तो सबका माना हुआ सर्वसम्मत विचार है। लेकिन भ्रम खड़े होते हैं और उसके कारण हैं। और उन कारणों के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका स्वयं हिन्दू समाज की ही है। जैसा कल मैंने कहा था हिन्दुत्व उस मूल्य समुच्चय का नाम है। विविधता में एकता, समन्वय, त्याग, संयम, कृतज्ञता। इसका आधार जो सत्य है उसका अन्वेषण हमारे यहां किया गया। दुनिया सुख की खोज बाहर कर रही थी। बाहर करते-करते थक जाती थी, ऐसे समय में हमारे यहां हमारे पूर्वजों ने किसी को बुद्धि हुई कि जरा अंदर भी देखें और फिर जड़ जगत के विज्ञाननिष्ठ अध्ययन के साथ-साथ अंतर जगत के आध्यात्मिक अध्ययन का भी प्रारंभ हुआ और उसमें से अस्तित्व की एकता का सत्य केवल तर्क से प्रत्यक्ष अनुभूति से हमारे पूर्वजों को प्राप्त हुआ। उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति रखने वाले महान पुरुषों की परम्परा तब से आज तक अपने देश में पूर्णतः विद्यमान है। तर्क की बात नहीं, थ्योरी की बात नहीं। जो कह सकते हैं स्वामी विवेकानंद जी ने रामकृष्ण परमहंस को जब पूछा कि क्या ईश्वर को आपने देखा है? उन्होंने बहुत लोगों को पूछा। गोल-मटोल बातें होती थीं क्योंकि तर्क से तो बहुत लोग बता सकते हैं, मैं भी बता सकता हूं, आप भी बता सकते हैं। लेकिन तर्क की बात चलती नहीं, वास्तव में क्या है? यही बात रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी के पिता से उन्होंने पूछा। तब वो उत्तर नहीं दे सके। उन्होंने कहा कि तुम्हारी आंखों में बड़ा तैज है। विवेकानंद जी ने कहा वो मुझे नहीं चाहिए। मेरे प्रश्न का उत्तर दो, भगवान को आपने देखा है क्या? तो फिर उनके तर्क से कोई उत्तर नहीं आया। अपने कॉलेज में पढ़ते समय, फिलॉसोफी पढ़ते समय ‘ट्रांस’ इस शब्द पर चर्चा चली तो उनके अंग्रेज प्रोफेसर ने बताया कि इसका सही अर्थ आपको जानना है तो दक्षिणेश्वर जाओ। वहां रामकृष्ण परमहंस के पास वे पहुंचे और एक-दो बार मिलने के बाद उन्होंने वो प्रश्न पूछा कि क्या भगवान को आपने देखा है? तो रामकृष्ण परमहंस जो मुश्किल से चैथी पास रहे होंगे, पागल जैसे लगते थे। उन्होंने कहा हां, देखा है। नित्य देखता हूं। तुमको जितना स्पष्ट देखता हूं, उससे ज्यादा स्पष्ट देखता हूं। भगवान से बात भी करता हूं और तुम अगर मेरे बताये रास्ते पर चलोगे तो तुम भी ये कर सकोगे। अब इस बात को इतने आत्मविश्वास के साथ बता सकने वाले लोग आज भी अपने देश में मिलते हैं। उस सत्य के आधार पर, वह सत्य क्या है इसका वर्णन, जैसा मैंने कल कहा, अलग-अलग है और परस्पर विरोधी भी है। परंतु एक सत्य है, वो अस्तित्व की एकता का सत्य है और उसके चलते दुनियां की विविधताओं का स्वीकार सम्मान करो, उनका उत्सव करो। अपनी-अपनी विविधता पर शृद्धापूर्वक पक्के चलते रहो, बाकी सबकी विविधता का सम्मान करो और मिल-जुलकर चलो। ये संदेश देने वाला जो मूल्य समुच्चय है वो मूल्य समुच्चय हिन्दू है, हिन्दुत्व है। ये नाम तो बाहर से मिला ये बात सही है क्योंकि आप प्राचीन ग्रंथों में जाओगे तो ये शब्द आपको कहीं मिलेगा ही नहीं, भारत में। आज भी बहुत से विद्वान, संत भी हिन्दू नहीं कहते, सनातन कहते हैं, धर्म कहते हैं। अन्य सम्प्रदाय में धम्म कहते हैं। हिन्दू नाम बाद में आया, किसी परिस्थिति विशेष के कारण आया।
 
 
 
आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी ने एक लेख लिखा, 29 के दशक की बात है, उसमें मैंने पढ़ा अब क्या सही, गलत है देखिए। उनकी उपपत्ति ये है कि झरतृष्ट जब भारत से पहुंचे परिशिया यानी आज का इरान तो वहां के समाज ने उनको गुरु के नाते स्वीकार किया और गुरु का परिचय पूछा तो उन्होंने कहा कि परिचय क्या बताऊँ? हम तो सब मानव की एकता में विश्वास करने वाले लोग लेकिन आपके गांव, नाम जानना है तो मैं इतना बताता हूं कि हमारे पूर्वज सिन्धु के उधर से आये थे। पारस की भाषा में ‘स’ क ‘ह’ होता है, उसने अपने गुरु को हिन्दू गुरु बना दिया। वहां से व्यापार इसराइल के साथ होता था तो यहूदियों के पस भी शब्द पहले पहुंचा, वहां से समुद्री मार्ग से अपने पश्चिम किनारे पर व्यापारियों को पता चला और धीरे-धीरे व्यापारियों के जानकारी के अनुसार वो हमारे देश के बौद्धिक जगत में पहुंचा तो शायद नवीं शदी से वो हमारे ग्रंथों आने लगा, उसके पहले नहीं था। लोकभाषा में तब भी नहीं आया था। लोकभाषा में तो बाहर के आक्रमकों ने, जिनको अपनी विचारधारा का प्रभाव चाहिए था उन्होंने ने जब इस देश की इतने प्रकार की विचारधाराओं को सबको एक करके पीटना शुरू किया तो हमारे शायद लोगों ने विचार किया होगा कि ये कहां से हुआ। हम तो अलग-अलग, हम इनके जैसे निर्गुण, निराकार मानते हैं लेकिन ये हमको भी पीटते हैं। तो फिर उनको ये उत्तर मिला कि आप सब लोग हिन्दू हो इसलिए आप सबको हम बदल रहे हैं, तो वो लोकभाषा में आया, लोकभाषा का शब्द, संत पहले उठाते हैं, तो संतों की वाणी में पहली बार, उसके बाद गुरुनानक देव ने जैसे कहा तुर्कस्थान खसमाना गया, हिन्दुस्थान डराया, काया कपड़ टुक, टुक होसी हिन्दुस्थान समाल सी बोला। हिन्दू शब्द तब से लोगों में प्रचलित है लेकिन अब वो चिपक गया है तो क्या करेंगे। जैसे मेरा, आपका नाम है, वो तो हमारी परमीशन लेकर नहीं रखा गया, लेकिन वो चिपक गया। दूसरे नाम को प्रतिसाद नहीं देंगे। इसलिए ये जब अस्तित्व की एकता, परस्पर सहयोग, सबका साथ चलना, क्योंकि इसका एक ओक्षुक ये भी आता है कि व्यक्ति का समाज के हित से विरोध नहीं है। समाजवाद में व्यक्ति को दबाने की जरूरत नहीं और व्यक्ति की उन्नति के कारण समाज में शोषण करने की जरूरत नहीं। व्यक्ति और समाज परस्पर विकास में साथ चल सकते हैं और सारा मानव समाज विकास और पर्यावरणवाद में कोई विरोध नहीं है वह साथ चल सकता है। विकास भी हो सकता है। पर्यावरण भी ठीक क्योंकि सृष्टि और समाज का भी झगड़ा नहीं है। सारा विश्व एक ही अस्तित्व होने के कारण है। सब लोग साथ चल सकते हैं। साथ सबकी उन्नति हो सकती है और सब लोग श्रेयस् को प्राप्त कर सकते हैं। यह भी उसका एक औक्षुक आता है। तो ये सारा जो विचार है ये अगर हम बताने लगते हैं तो लोग कहते हैं कि हिंदू विचार को बोल रहे हैं। उसके लिए पर्यायी शब्द भी जो बनते हैं वह इसी शब्द से निकले हैं। मैंने ऐसा सुना है मुझे प्रत्यक्ष मालूम नहीं। लेकिन हज यात्रा पर जाने वाले भारत के मुसलमानों का भी वहाँ पंजीयन जो होता है उसमें उनको माना जाता है कि ये हिन्दू भी मुसलमान हैं और इटलेक्चुअल सर्कल में जो चर्चा चलती है उसमें इस प्रकार के विचारों को इंडिक थाॅट कहते हैं। वो इंडिक भी इसी भाषा का शब्द है। बहुत दूर जब हम क्यों भारतीय कहते हैं तो वो केवल भारत नाम के भूगोल का नाम नहीं रहता क्योंकि भारत का भूगोल तो बदलता रहा है। कम ज्यादा होता रहा है। तो भारत एक स्वभाव का नाम है। ये सारे शब्द समानार्थी शब्द हैं। लेकिन इसके आशय को स्पष्ट रूप से बनाने वाला एक शब्द है हिन्दू। इसलिये संघ हिन्दू इस शब्द को आग्रहपूर्वक लेकर चलता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो भारत शब्द का उपयोग करते हैं जो इंडिक शब्द का उपयोग करते हैं जो आर्य शब्द का उपयोग करते हैं उनसे हमारा कोई झगड़ा है या विरोध है। हम जानते हैं कि उनको कहना वही है। हमारे लिए ये शब्द आग्रह का शब्द है। उनके लिए वह होगा। बहुत अच्छी बात है। इसको लेकर झगड़ा होने की कोई बात नहीं है। क्योंकि आशय की बात तो एक ही है विविधता में एकता। इस मूल्य समुच्चय के आधार पर एक धर्म बनता है। एक संकल्पना बनती है कि जीवन में कैसे चलना चाहिए। किस दिशा में चलना चाहिए। धर्म शब्द को लेकर भी बड़ा कन्फ्यूजन है क्योंकि यह केवल भारतीय भाषाओं में शब्द मिलता है। भारत के बाहर ये शब्द नहीं मिलता। धम्म शब्द, धर्म शब्द ये भारत की देन है। अब वैसा दूसरा क्या है बाकी देशों में नहीं है। थोड़ा मिलता जुलता क्योंकि धर्म के साथ कर्मकांड भी आता है तो कर्मकांड विशेष प्रकार का, विशेष प्रकार की पूजा, विशेष प्रकार के मसीहा ऐसा जो बनता है उसको रिलीजन कहते हैं इसलिये अपनी भाषा को छोड़कर जब हम विदेशी भाषा में बोलने लगते हैं तब हम रिलीजन कहते हैं और रिलीजन का ट्रांसलेशन धर्म करते हैं। इसलिये गलतफहमी पैदा होती है। ये धर्म यानी किसी एक विशेष देश के समाज की बपौती नहीं है। ये पूरे मानव का वैश्विक धर्म है। हिन्दू धर्म आज जिसको कहते हैं वह वास्तव में हिन्दुओें का धर्म नहीं है। हिन्दुओं का धर्म हिन्दू धर्म शास्त्र के नाम से नहीं है। वह मानव धर्म शास्त्र उसको कहा जाता है। हिन्दू शब्द आने के पहले वह रचा गया। वह किसी एक के लिए नहीं था। वह सब के लिए था। हमारे देश में जितनी आत्मधारायें हैं सिक्ख, बौद्ध, जैन, सनातनी, आर्य समाजी ये सब लोग जन्म तो भारत के समाज में काम किया लेकिन उन्होंने जो कहा है वो सारा का सारा सम्पूर्ण विश्व के लिए है। क्योंकि हमने कभी भी अपनी परम्परा में अपने आपको विश्व मानवता से अलग नहीं माना। माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः बान्धवा शिववास्त्राश्च स्वदेशो भुवनत्रयाः। त्रिभुवन हमारा स्वदेश है। सारी पृथ्वी हमारा कुटुम्ब है। वसुधैव कुटुम्बकम् ये हमारा स्वभाव रहा है। क्योंकि अस्तित्व की एकता को जानने से भारत का उद्गम है। उस अस्तित्व की एकता का भान सबको करा देने के प्रयोजन से भारत का अस्तित्व बना है। तब से हम इन सब प्रकार की विविधताओं को लेकर एक समाज के नाते चल रहे हैं। एक राष्ट्र के नाते चल रहे हैं। हमारा राष्ट्र ये प्राचीन है। उसका अस्तित्व आप उसकी कल्पना अगर पाश्चात्यांे की व्याख्या से करेंगे कि जहाँ स्ट्रेट है वहाँ नेशन है। स्टेट गया कि नेशन गया। यह हमारा कन्सेप्ट कभी रहा नहीं। स्टेट्स बदलते रहे। राष्ट्र हमारा सांस्कृतिक राष्ट्र है। इस धर्म में ये जो शाश्वत मूल्यों का भाग है वह शाश्वत धर्म है। आचार्य धर्म बदलना चाहिए। देश काल परिस्थिति और जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में विचार है वह व्यक्ति इन पर निर्भर करता है कि उस समय वहाँ पर उसका धर्म क्या है आचार्य धर्म। डॉ. आम्बेडकर साहब ने हिन्दू कोड बिल की चर्चा में संसद में पूछा था विरोध करने वालों को, कि आप धर्म को क्या समझते हो। वेल्युज या कोढ़ । आप कोढ़ को धर्म मान रहे हो। कोढ़ बदलता है। बदलना ही चाहिए। उसको मैं बदल रहा हूं। वेल्युज वही है आप चर्चा करे। धर्म की ओर देखने की हमारी दृष्टि ये है। वह वेल्यूज है। उस समय का कोढ़ उस वेल्यू के साथ-साथ जितना चलता है उतना स्वीकार्य है। जो वेल्यू के विपरीत है उसको बदलना चाहिए। कितना बदल हुआ है हिन्दू परम्परा में । देवी देवता भी बदल गये। वैदिक काल के देवता आज नहीं हैं। मध्य काल के देवताओं के स्वरूप बदल गये हैं। नये-नये सम्प्रदाय निकल जाते हैं। ये हिन्दुत्व की संकल्पना खाने-पीने के विशिष्टि व्यवहार में किसी को झगड़ने वाली नहीं है। ये हिन्दुत्व की संकल्पना अमुक एक पूजा को लेकर समर्थन नहीं करती। ये हिन्दुत्व की संकल्पना विशिष्ट भाषा, विशिष्ट प्रांत, प्रदेश, इसको नहीं चलाती। सृष्टि के साथ मानव समाज व्यक्ति का सुख और समाज का सुख दोनों एक साथ रखकर चले, इसलिए अर्थ, काम वो तो है ही उसकी मान्यता है। इच्छाएं हमारी होती हैं उसकी तृप्ति करने से सुख मिलता है। तृप्ति के साधन चाहिए तो अर्थ पुरुषार्थ भी है। लेकिन इन दोनों को हम सबको मिलकर चलना है। अकेली उन्नति नहीं करनी। मेरे विकास में इन सबका विकास होना चाहिए। इसका भान रखकर चलाने वाला अनुशासन है। वो अनुशासन धर्म है। कल मैंने तथागत का वचन सुनाया था आपको। सव्य पापस्य व्याकरणम्। क्यों भई क्यों पाप नहीं करना। दूसरे को होता हुआ भी तकलीफ। अरे वह दूसरा नहीं है वह भी तुम ही हो। और इसलिये सबके कल्याण में अपना कल्याण अपने कल्याण से सबका कल्याण ऐसा जीवन जीने का अनुशासन और सबका कल्याण हो इसलिये सबके हितों का एक संतुलित समन्वय, बैलेंस ये वास्तव में हिन्दुत्व है। सभी भारत से निकले सम्प्रदायों का जो सामूहिक मूल्य बोध है उसका नाम हिन्दुत्व है। लेकिन अब सम्प्रदाय है, प्राचीन हैं, चले हैं। हमारे धर्म हैं। तो है तो हम मान्य करते हैं। सभी विविधताओं का अपने यहां स्वीकार्य है। भारत की पहचान वह बनी है। यह वैश्विक धर्म है। केवल भारत के लिए नहीं है। लेकिन भारत में इसका संगोपन हुआ, निर्माण हुआ, संगोपन हुआ और एक ट्रस्टी के नाते समय-समय पर विश्व को इस ज्ञान को देने वाला भारत है। वैदिक ऋषियों के समय हुआ। सारे विश्व में गया अध्यात्म। तथागत के काल में उनकी प्रेरणा से सारी दुनिया में इस धम्म का प्रचार हुआ। आज भी अनेक संत महात्मा जाते हैं और इन बातों को बताते हैं। वो कन्वेंसन नहीं करते। रमण महर्षि के पास सर पॉल ब्रेंटन आए थे उन्होंने कहा कि मुझे हिन्दू बना लो। रमण महर्षि ने कहा तुम अच्छे इसाई हो अच्छे इसाई बनो उसी में अच्छे बनो। तुम्हें हिन्दू बनने की जरूरत नहीं है क्योंकि इन सब विविधताओं को, सब दर्शनों को, सब तत्वज्ञान को, हम मानते हैं कि वो सब सत्य है। सही है। रामकृष्ण परमहंस जैसे संत ने इन सबका आसनाओं का प्रत्यक्ष आचरण करके उनके अंतिम उपलब्धि तक जाकर देख लिया और बाद में बताया ये हिन्दुत्व है। ये सब विविधतायें रहेंगी। विशेषतायें रहेंगी। उसका स्वीकार होगा। सम्मान होगा। लेकिन ये हममे आपस में अलगाव का भेद का कारण नहीं बनेगी क्योंकि ऐसा भेद नहीं करना, ऐसी सीख देने वाली भारत भूमि के हम पुत्र हैं। इसलिये हम जिसको हिन्दुत्व कहते हैं उस मूल्यबोध, उससे निकली हुई यह संस्कृति, उसके साथ दूसरा घटक है देशभक्ति। वो भारत की पहचान है। भारत इसके लिए है। और इसलिये इसका आचरण इस भारत वर्ष में लगातार हो रहा है। सब प्रकार की परिस्थिति में हुआ। जब आक्रामकों के पैरों तले हमारी धरती रौंदी जा रही थी, तब भी इस धर्म का आचरण जितना जैसा बनता है उतना किया गया। जब अपने ही स्वार्थी लोगों के द्वारा इसके आचरण को मूल्यों के विपरीत बिगाड़ दिया गया तो उसको वापस लाइन पर लाने वाले अनेक संत महात्मा हुए, उनसे ही हमारे सम्प्रदाय बने। इसलिये प्रस्थान बिन्दु सबका एक है और आचरण का उपदेश सबका एक है। देशकाल परिस्थिति के अनुसार दर्शन और विधि आचार्य धर्म सबने अलग अलग बताया है और इसलिये इस मूलभूत एकता को देखकर साथ चलना इस स्वभाव का नाम हिन्दुत्व है। किसी का हित गौण नहीं है। सबका हित एक साथ होना चाहिए। मेक्जिमम गुड ऑफ द मेक्जिमम पीपल। इसके आगे जाकर हमारे पूर्वजों ने कहा सर्वेति सुखिनः संतु। हवई सब्ब मंगलम्। सर्वत्त का वाला, किसी पंथ, सम्प्रदाय में भारतीय जाओ ये आपको मिलेगा, सबका। यहां तक जो खल है, दुष्ट है उनका भी भला ही, चिंता है सबने। प्रसायदान महाराज ने लिखा तो दुष्टों का नाश हो ऐसा वे नहीं कहते। वो कहते हैं खलान्ची वेन्कटी सांडयने। ये दुष्ट स्वभाव के लोगों का जो टेढ़ापन है वो चला जाए। हमारे यहां उद्घोष चलता है, सनातन परम्परा में भी। धर्म की जय हो, धर्मी की जय हो, अधर्मी का विनाश हो ऐसा नहीं कहते। धर्म की जय हो, अधर्म का विनाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो। ये जो अपनी विचाराधारा है, जिसकी आज के विश्व को नितान्त आवश्यकता है। वो मांग रही है। उस विचारधारा को अपने आचरण में चरितार्थ करने वाला समाज भारत में खड़ा करना है और वही हम सबको जोड़ता है। कोई एक भाषा हमको जोड़ती है क्या, नहीं। कोई एक देवी-देवता हमको जोड़ते हैं क्या, नहीं। खानपान, रीति-रिवाज का एक तरीका हमारा समान नहीं है। हमारे प्रांत है, हमारी भाषा है, हमारी जाति है, उपजातियां सब है। लेकिन ये सब होने के बावजूद भी हम सब भारत माता के पुत्र उस वैश्विक संस्कृति के अनुयायी हैं। ऐसा हम चले हैं, ऐसा हम चले हैं। जहां-जहां विश्व में गए हैं, हमने कोई लड़ाई नहीं की, हमने किसी का राज्य नहीं जीता। हमने किसी की सम्पत्ति को लूटा नहीं। जहां गये वहां ज्ञान दिया, सभ्यता दी। अन्य देशों के लोग आकर प्रभावशाली अपने देश में बनते हैं और बाद में जाते हैं वहां वापस। उनकी जो स्मृति आ रही थी, वो अच्छी नहीं रहती थी। किसी भी देश में। अन्य देश के लोग आए, उन्होंने हम पर राज किया चले गए। अन्य देश के लोग आए, उन्होंने हमको प्रभावित किया, चले गए। इसको अच्छा नहीं बताते, लेकिन एकमात्र भारत है, जिसके दुनियां के जिन-जिन देशों में वास्तव में हुआ है उसकी स्मृतियों को आनंद से, आदरपूर्वक वहां के लोग बताते हैं। आज भी उसके अवशेष चला रहे हैं। कहीं पर मूर्तियां मिलती है, कहीं पर शिल्प खड़े करते हैं नये सिरे से, महाभारत की, रामायण की कथाएं चलती हैं। रामलीलाएं चलती है, आनंद के साथ चलती है। पूजा पद्धति बदल गई। मैं वहां पर सहबर रहे, न वहां पर बौद्ध रहे। आज मुसलमान है, लेकिन वो कहते हैं हमने अपने कुरेज नहीं बदले। ये मधुर स्मृतियां, एकमात्र चमत्कार भारत का ही क्यों है? इसीलिए है कि भारत इस संतुलन को, अनुशासन को विश्व कल्याण की भावना से सबको अपना मानकर ले गया है। ये चित्र हमारे यहां खड़ा करना है और इसलिए जिस हमारे सुजल, सुफल, मलज, शीतल मातृभूमि ने हमको कभी आक्रमण की चिंता में प्राचीन समय में रखा नहीं। चारों और से हम प्रोटेक्टेड थे। आज के जैसे जाने-आने के साधन नहीं थे। तो हम सुरक्षित थे, समृद्धि थी। तो हमने कभी लड़ाई करना सीखा ही नहीं, जो आएगा उसको बसा लिया। तुम भी रहो, भाषाएं हमारी भी पहले से अनेक हैं। देवी-देवता हमारे पहले से अनेक हैं। उससे कुछ नहीं बिगड़ता। मानवता के धर्म को लेकर चलो और इसलिए डॉ. अम्बेडकर साहब ने ये कहा है कि स्वातंत्र्य और समता और बंधुता ये आदर्श मैंने फ्रांसिसी राज्य क्रांति से नहीं लिए। इसी मिट्टी में उपजे तथागत बुद्ध के विचारों से मैंने यह प्रेरणा पाई है क्योंकि स्वतंत्रता आई तो समता का लोभता और समता लाने गए तो स्वातंत्र्य को संकुचित करना पड़ता है। एक साथ दोनों लाना है तो बंधुभाव की आवश्यकता है और वो बंधुभाव ही धर्म है। बंधुभाव का आधार क्या है? हमारे पूर्वज समान हैं, हमारी सांस्कृतिक विरासत सबकी सांझी है और हमारी मातृभूमि एक है। इसलिए मैं कहता हूं उसका विरोध भी होता है कभी-कभी। लेकिन मेरे हृदय की भावना यह है कि भारत वर्ष में जो है वो सब हमारी भाषा में। वह अपने आप को कहे न कहे उनको स्वतंत्रता है और दूसरा कुछ कहते हैं, हमको उसमें कोई गिला-शिकवा नहीं। हमारे मन के अपनत्व को कम करने वाली बात नहीं है। लेकिन वो सब एक पहचान के लोग हैं, राष्ट्र के नाते। हम उसको हिन्दू पहचानते हैं। किसी को मालूम है, वो कहते हैं हम हिन्दू है, उनको गौरव भी उसका। किसी को मालूम है, लेकिन उतना गौरव उनके मन में नहीं है, कोई बात नहीं। किसी को मालूम है लेकिन कुछ मटेरियल कंसीडरेंशंस ऐसा कहा जाता है या पॉलिटिकल करेक्टनेस ऐसा कहा जाता है। उसके रहते वो कभी कहेंगे नहीं, सार्वजनिक रूप से। निजि रूप से मिलते हैं तो कहते भी हैं कभी-कभी। और कुछ लोग हैं कि जो भूल गए हैं, जिनको भुलाया भी गया है। ये सब लोग हमारे अपने हैं, भारत के हैं। हमारी दृष्टि से इस सम्पूर्ण समाज का संगठन हिन्दू संगठन है। जैसे परीक्षा में प्रश्न-पत्र हाथ में आता है तो आसान सवाल पहले करते हैं, बाद में कठिन सवालों को हाथ लगाते हैं। वैसे पहले जो जानते हैं कि हम हिन्दू हैं उनका हम संगठन करेंगे। लेकिन वो इनके खिलाफ नहीं करेंगे, इनके लिए करेंगे। एक अच्छा जीवन खड़ा करके, उस जीवन ये सब लोग भी बराबरी से सहभागी हों, ऐसा हम प्रयास करेंगे। क्योंकि हमारा कोई शत्रु नहीं है, न दुनियां में है न देश में है। हमारी शत्रुता करने वाले लोग होंगे उनसे अपने को बचाते हुए भी हमारी आकांक्षा उनको समाप्त करने की नहीं, उनको साथ लेने की है, जोड़ने की है। ये वास्तव में हिन्दुत्व है।
 
आज जो हिन्दू के नाते प्रचलित हम देखते हैं वो सब कुछ धर्म नहीं है। क्योंकि इस भावना का लो महाभारत काल से धीरे-धीरे होता आया। और हमने इसलिए मैंने कहा कि उसको संकुचित करने में पहला योगदान हिन्दू समाज का है। उसको अपने आपको संकुचित कर लिया। उसने वेल्यूज को कर्मकाण्ड में बांध दिया और इसलिए कई प्रकार की कुरीतियाँ, रूढ़ियाँ, अस्पृश्यता जैसे पाप हिन्दू समाज में प्रवेश कर गए। हम चाहते कि ये सब साफ हो जाए और देश, काल, परिस्थिति अनुसार नवीन रूप में उस सनातन मानव धर्म का पुनुरूत्थान भारत में हो। हम जानते हैं कि हमारे देश के सब सम्प्रदायों में वही आचरण बताया है, मूल्य आधारित। उसका ही प्रचलन सर्वत्र हो, वो किसी को नहीं बुरा कहेगा, किसी को पराया नहीं कहेगा, जिसको हाथ लगाएगा, उसको अपनाएगा, उसको अच्छा बनाएगा। उस हिन्दुत्व के आधार पर संघ विचार करता है। विचार ईशुज पर होते हैं। तो ईशुज में भाषा अलग-अलग प्रकार की हो सकती है। घर में चार बच्चे हैं, उनको अलग-अलग ढंग से उनके स्वभाव के अनुसार समझाना पड़ता है। लेकिन इस बाहर की बात पर मत जाइए। हमारी इच्छा यह है, हमारे हिन्दुत्व की ये संकल्पना है। अपने देश में अपने देश की चिंता करने वाले सब प्रामाणिक निःस्वार्थ बुद्धि के लोगों ने अपने देश के बारे में जो संकल्पना की, उसी को लेकर हम चल रहे हैं, हमको नया विचार कुछ करना नहीं है। उसके आधार पर कई बातों का तय हुआ है। विकास की अपनी फिर कल्पना है। पश्चिम की अपनी एक अवधारणा है। हमको अपनी एक अवधारणा, अनुकूल अवधारणा विकास की, खड़ी करनी पड़ेगी। अंधानुकरण करके बाकी लोग जिस समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उसमें हम भी फंस जाएं, ये क्यों? हम उसके उत्तर खोजें। तो सबका विकास साथ में समन्वित विकास, संतुलित विकास ये बात आज दुनिया भी कर रही है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट पर आ गई है। हमारे पास ये विचारधारा है। हमने जीवन से इसका उदाहरण पहले भूतकाल में प्रस्तुत किया है। हमारी एक क्षमता है, हम अपना एक आधुनिकतम दुनियां के लिए उपयुक्त ऐसा मॉडल खड़ा कर सकते हैं। हमको उस दिशा में सोचना चाहिए। अर्थ का मर्यादा का ज्यादा प्रधान पद जीवन में आने से कई समस्यायें उत्पन्न होंगी। हम अर्थ कामों को एक दायरे के अंदर उसके अनुशासन में चलाते हैं। कमाई सब कुछ नहीं है। कमाओ, जी भर के कमाओ। लेकिन दिल खोलकर बांटो। ये मुख्य बात है। कमाना इससे ज्यादा कमाई का उपयोग कैसे करना, विनियोग करने को, उसको सीखो। यह हमारे हाथ आ गया। सक्सेसफुल जीवन चाहिए लेकिन सक्सेसफुल जीवन, मीनिंगफुल जीवन चाहिए इस पर हमारा जोर रहता है। ऐसे जीवन के सब अंगों में जो विषय है उनके बारे में इस मूल अवधारणा के कारण हमारे देश की अपनी एक दृष्टि बनती है। हमारे देश के सब प्रकार के लोग उसी को अपने क्रियाकलाप में लाने का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं। उस हिन्दुत्व की हम बात करते हैं। इसके आधार पर जो आवश्यक सद्गुण है उसे भरकर व्यक्ति को खड़ा करना यह हमारा काम है। सर्वेशाम अविरोजनाम्। किसी की बुरी कामना हमारे मन में नहीं है। यह हमारा कहना है कि आप आकर इसको सीख लो तो आपको जो करना है वह अच्छी तरह से करोगे और आप जो करोगे वह मानवता के लिए उपकारक होगा। उस हिन्दुत्व के हम तीन आधार मानते हैं। देशभक्ति, पूर्वज गौरव और संस्कृति। उसके बारे में कोई विवाद होने का कारण नहीं। वह सबका साझा है। जाने-अनजाने उसका आचरण हम सब लोग करते हैं। थोड़ा अंदर देकर सोचें सबको पता चलेगा। अब ये जो सारी बाते हैं, कोई विचार आता है कि आधुनिक जीवन में हमारे प्रजातांत्रिक देश में हमने एक संविधान क्यों स्वीकार किया। तो स्वीकार किया है तो क्या? वो संविधान जो हमारे लोगों ने तैयार किया, अपना संविधान अपने देश का कोंसेस है और इसलिए उस संविधान के अनुशासन का पालन करना ये सबका कर्तव्य है। संघ इसको पहले से ही मानता है। अभी तक जो मैंने बोला है उससे उसमें कुछ नया नहीं है और उलटा नहीं है और उसमें जो कुछ है उसी को मैंने अपने शब्दों में बोला है। उस संविधान की भावना का पूर्ण मैंने कहा स्वतंत्र भारत के सब प्रतीकों के अनुशासन में उसका पूर्ण सम्मान करके हम चलते हैं। हमारा संविधान भी ऐसा प्रतीक है। शतकों के बाद हमको फिर से अपना जीवन अपने तंत्र से खड़ा करने का जो मौका मिला उस पर हमारे देश के मूर्धन्य लोगों ने, विचारवान लोगों ने एकत्रित आकर विचार करके संविधान को बनाया है वह ऐसे ही नहीं बना। उसके एक एक शब्द का बहुत खल हुआ है। और उनको लेकर सर्वसहमति उत्पन्न करने के पूर्ण प्रयास के बाद जो सहमति बनी वह संविधान के रूप में अपने पास आई। उसकी एक प्रस्तावना है, प्रियेम्बल है। उसमें नागरिक कर्तव्य बताया है। उसमें डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स हैं और उसमें नागरिक अधिकार भी हैं। बाकी कानून वगैरह उसके आधार पर जो बने हैं वह बदलते रहते हैं। उस बदलने का प्रावधान उस संविधान में है। वह चलते रहता है। उसके लिए फोरम है भारत की संसद। उसके इंटरपिटेशन के लिए कोर्ट का मत लिया जाता है। यह व्यवस्था है। उस व्यवस्था में से चलेगा जैसा चलना है। लेकिन ये जो चार बाते हैं और कुछ कांस्टीट्यूशन्स, प्रोवीजन्स है वो हमारा कान्सेंस है उसको मानकर ही सबको चलना है, सबको चलना चाहिए। ऐसा हम मानते हैं। ऐसा चलते हैं। मैं केवल प्रियम्बल पढ़ देता हूं। हू इज पीपुल्स ऑफ इंडिया, हेविंग सोलिंग्ली डिजाल्व टू कांस्टीटंगली इंडिया इनटु ए शावरिंग सोशलिस्ट सेक्युलर डेमोक्रेटिकल पब्लिक। ये सोशलिस्ट सेक्युलर बाद में आया है सबको पता है लेकिन अभी है। उसको भी पढ़ा है मैंने। एंड सेक्योर टू ऑल इट्स सिटीजन्स, जस्टिस सोशल इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल। लिबरटी ऑफ थॉट एक्सप्रेशन, बिलीव इट फेक एंड वर्शिप इक्वलिटी ऑफ स्टेटस एंड ऑफ ऑपरचुनिटी। अब आगे की और एक महत्व की बात है जिसको डॉक्टर आम्बेडकर साहब ने अपने संविधान सभा के भाषण में कहा था। एंड टू प्रमोट अमंग देन ऑल फ्रेटरनिटी आइश्योरिंग द डिग्नटी ऑफ द इंडिविजुअल एंड दि यूनिटी एंड इंटिग्रिटी ऑफ द नेशन। संविधान सभा में उन्होंने कहा था कि हमारी आपस की लड़ाई के कारण विदेशी जीते और हमको गुलाम बनाया। मैं भाव बता रहा हूं। शब्द उनके हैं आप पढ़ सकते हैं। हमने बंधुभाव, अभी भी हम संसद में बैठे हैं परस्पर विरोधी कैंप में एक दूसरे के विरोधी बनकर। ये तो तंत्र की मजबूरी है लेकिन इन सबके बावजूद हम सब एक हैं ऐसा बंधुभाव हमने उत्पन्न नहीं किया तो फिर कौन से दिन देखने पड़ेंगे बता नहीं सकते। उनके शब्द आप पढ़ लीजिये। संघ का काम इस बंधुभाव के लिए है और इस बंधुभाव के लिए एक ही आधार है विविधता में एकता। वो विचार देने वाली हमारी चलती आई हुई विचारधारा है उसको दुनिया हिंदुत्व कहती है, इसलिये हम कहते हैं कि हमारा हिन्दू राष्ट्र है। इसका मतलब इसमें मुसलमान नहीं चाहिए ऐसा बिल्कुल नहीं होता। जिस दिन ये कहा जाएगा कि हां मुसलमान नहीं चाहिए उस दिन यह हिंदुत्व नहीं रहेगा। वो तो विश्व कुटुम्ब की बात करता है। जिस दिन हम कहेंगे कि केवल वेद चलेंगे बौद्ध मत नहीं चलेगा वह बौद्धों को नहीं मानता। वो हिन्दू तो नहीं रहेगा। क्योंकि सत्य की सतत खोज हमारे देश में चली है और उसके कारण अनेक दर्शन उत्पन्न हुए हैं। उन सबकी मान्यता है। वो सब सत्य है इसलिये सबकी श्रद्धा है होनी चाहिए। इस हिन्दुत्व को लेकर हम चलते हैं क्योंकि इस बंधुभाव को वैचारिक आधार देने वाला वही एकमात्र विचार है। वो सर्वेशाम अवरोधी विचार है। वो कभी प्रतिक्रिया में नहीं आता। उसको धारण करके वास्तव में चलने की योग्यता हमारी होनी चाहिए। हमने बीच के काल में उसको खो दिया है इसलिये बहुत सारी बातें हुई हैं। नहीं तो हम भी 1881 का सेंसस हुआ तब तक हमारे देश के सामान्य लोग भी यह जानते थे सर सैयद अहमद खां का जो लाहौर का भाषण है, उसकी चर्चा चली है। वह बैरिस्टर बनकर आये, लाहौर के आर्य समाज ने उनका सत्कार किया आर्य प्रतिनिधि समाज ने। और उनका परिचय देते समय परिचयकर्ता ने कहा कि हिन्दुओं में बहुत वरिष्ठ बने हैं लेकिन यह मुसलमानों में पहले हैं। इसलिये हम उनका अभिनंदन कर रहे हैं। तो सैयद अहमद अली खां ने अपने भाषण में जो उत्तर दिया उसके प्रारंभ में उन्होंने कहा कि मुझे बड़ा दुख हुआ कि आपने हमको अपने में नहीं शुमार किया। क्या हम भारत माता के पुत्र नहीं हैं। अरे इतिहास में हमारी बदल गई पूजा की पद्धति और क्या बदला है। ये जो बात है ये हम 1881 तक जानते थे, धीरे-धीरे इसको हमने खो दिया अपने जेहन से। उसको वापस लाना पड़ेगा। हां उसको आप हम जैसा कहते हैं वैसा हिन्दु मत कहो, चलेगा। अब उसको भारतीय कहो। हम आपके कहने का सम्मान करते हैं। हम जिस संस्कार का निर्माण करना चाहते हैं इसलिये वह हमको एकमात्र उपयुक्त शब्द लगता है इसलिये उसको हम लेकर चल रहे हैं। और उसके नुकसान भी होते हैं तो हम सहन करके चल रहे हैं। क्योंकि हमारा ही विश्वास है इस शब्द के रहने से भारत का यह स्वभाव कभी भी लुप्त नहीं होगा। सबको लेकर भारत के लोग आगे बढ़ेंगे। ये संघ की विचारधारा है। और इसलिये संविधान के सम्मान का प्रश्न ही नहीं उठता। हम संविधान के अनुसार फिर से हम सब लोग बंधे हैं। मैं कहता हूं कि अपने वैश्विक धर्म का भारत के धर्म का आज का आचार धर्म संविधान में उल्लेखित है। उससे हम सब लोग बंधे हैं। और वह संविधान इतना उदार है कि उसकी अपनी ही चर्चा हो ऐसे भी प्रावधान उसमें हैं, होती रहती है उसके लिए भी व्यवस्थायें निर्माण हैं। इसलिये प्रश्न ही नहीं उठता। संविधान को मानकर ही संघ चलता है। संविधान कानून का पूर्ण सम्मान रखता है। संविधान कानून के खिलाफ हमने कुछ किया है। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है। ये बात पक्की है। अब हमारा ये कहना है हमारा यह अहंकार भी नहीं है कि अकेला भारत देश का उद्धार करेगा। ये अहंकार किसी ने भी रखना नहीं चाहिए। क्योंकि देश उठता है वह किसी एक व्यक्ति के, एक संगठन के, एक संस्था के, सरकार के जरिये नहीं उठता। देश का सम्पूर्ण समाज अपने देश के लिए जीने-मरने का उद्यम करता है गुणवान होकर, संगठित होकर, भेदों और स्वार्थों को भूलकर। तब देश का भाग्य बदलता है। दुनिया में जो देश आज तक बड़े हुए हैं आधुनिक काल में भी आप सबका इतिहास देख लीजिये, सतत कम से कम सौ वर्ष ऐसे प्रयास हुए। उसके बाद गर्त से उठकर वह देश विश्व का सिरमौर बन गया। चाहे वह इंग्लैंड हो, चाहे वह अमेरिका हो, चाहे वह फ्रांस हो, चाहे वह क्यूबा हो। चाहे वह जापान हो, चाहे वह चाइना हो, इन सबके इतिहास हैं लिखे जा चुके हैं। मैंने स्वयं पढ़े हैं। उसके निष्कर्षांे के आधार पर मैं बता रहा हूं। एक ही उदाहरण मैं दूंगा। जापान के बारे में पुस्तक लिखी गई दि इनक्रेडिबल जापानीज। जापान उस समय दुनिया के बाजारों का राजा था। उसका अध्ययन दो समाजशास्त्री दो अर्थशास्त्री चारों ने मिलकर किया। और पुस्तक लिखी। पुस्तक पढ़ने लायक है। उसके अंतिम पृष्ठ पर उन्होंने नौ निष्कर्ष दिये हैं। उन नौ निष्कर्षों में पहले पांच का सम्बन्ध अर्थशास्त्र से नहीं हैं। वो कहते हैं कि जापान के लोग अनुशासित हैं। इसलिये इतने प्रगतिशील हैं। दूसरी बात वह कहते हैं कि जापान के लोग जब अपने हित का विचार करते हैं तो अकेले के हित का विचार नहीं करते हैं। कम से कम अपने गांव की भलाई सोचकर उसका प्लानिंग करते हैं। तीसरा उन्होंने कहा कि जापान के लोग अपने देश के लिए किसी भी प्रकार का साहस करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। चौथा उन्होंने लिखा कि जापान के लोग अपने देश के लिए किसी भी प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार रहते हैं और पांचवा उन्होंने लिखा कि जापान के लोग अपने देश का हर काम उत्कृष्ट हो इसकी पूरी चिंता करते हैं। हमको यही संस्कार भरने हैं। इसी काम को करना है। और इसलिये हम मानते हैं कि सम्पूर्ण समाज को संगठित होना चाहिए। हम मानते हैं कि प्रामाणिकता से निस्वार्थ बुद्धि से अपनी-अपनी जगह पर छोटे-बड़े दायरे में देश हित में काम करने वाले सबका योगदान है। सम्पूर्ण समाज ऐसे भाव से अनुप्राणित होगा तब देश का भाग्य बदलेगा नहीं तो कुछ दिन अच्छा चलेगा। बाद में फिर दिन लौट आयेंगे। यह हमने बार-बार अनुभव किया है। स्वतंत्रता के पहले भी और स्वतंत्रता के बाद भी। स्वतंत्रता के बाद में भी बहुत ऐसे कालखंड आए जिसमें एकदम आशा पल्लवित हुई, सब लोग उत्साह में आ गये और बाद में फिर से पहले से ज्यादा अंधेरे में चले गये। कारण उस आशय को निर्माण करने वाले लोग नहीं थे। कारण अपने सामान्य समाज का स्तर, उसकी गुणवत्ता, उसका संकल्प ये थे। प्रामाणिक भावना से जो कोई देश हित में उद्यम करता है उसका उद्यम पूर्ण हो, सफल हो, ऐसा समाज उत्पन्न करना ये आवश्यक है। वी हैव कम टू फुलफिल नॉट टू डिस्ट्रॉय। सब जन जो हैं सब हितैषी लोग हैं उन सबके सब उद्यम सफल होते रहें पूर्णतः इसकी व्यवस्था समाज की करना है। ये संघ का काम है और इसलिये भविष्य के भारत की कल्पना पर जब हम आते हैं तो हम क्या सोचते हैं। बहुत ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्योंकि प्रत्येक भारतीय व्यक्ति अगर किसी आदर्श स्थिति की कामना करता है तो एक ही प्रकार की कामना करता है। हमको कैसा देश चाहिए। हमको सामर्थ्य सम्पन्न देश चाहिए। वो सामर्थ्य का उपयोग हमको दूसरों को दबाने के लिए नहीं करना है। लेकिन जिसका सामर्थ्य नहीं है उसकी अच्छी बातें भी दुनिया सुनती नहीं है यह वास्तविकता है। सत्य की चलती तब है जब उसके पीछे कोई शक्ति होती है। बड़ों की बात सब सुनते हैं। समर्थ को नहीं, दोष गुसाईं। ऐसा भी कहा जाता है। अमेरिका अभी मैं जाकर आया। शिकागो में वल्र्ड हिन्दू कांग्रेस में वहां के लोगों के सामने बोलने का प्रसंग आया। तो मैं भी इन शब्दों का उच्चारण आसानी से कर सकता हूं थोड़ा बहुत अंग्रेजी पढ़ा हूं तो माय अमेरिकन ब्रदर्स एंड सिस्टर्स लेकिन तालियां नहीं पड़तीं। विवेकानंद अपरिचित थे। उन्होंने ये शब्द कहे तीन मिनट तालियां गूंजीं। कारण क्या है? शब्द थे विवेकानंद के मोहन भागवत के नहीं थे। शब्द तो सरल है, कोई कठिन भाषा अंग्रेजी शब्द के नहीं हैं। माय अमेरिकन ब्रदर्स एंड सिस्टर्स, वेरी काॅमन वर्ड। लेकिन उसके पीछे जो व्यक्ति है उसकी तपस्या उसकी शक्ति काम करती है और इसलिये हमारा देश सामर्थ्य सम्पन्न होना पहली बात है। सब प्रकार का सामर्थ्य । आर्थिक सामर्थ्य , नैतिक सामर्थ्य , सामरिक सामर्थ्य । किसलिये, विश्व कल्याण के लिए। सब लोग ऐसा कहते हैं। लेकिन डंडा चलाते हुए दिखते हैं। हम वैसा नहीं करेंगे। सबको मित्र बनाकर हम यह काम करेंगे। इसलिये नैतिक बल भी चाहिए। शील सम्पन्न देश चाहिए।
 
एतद् देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
 
स्वं स्वं चरित्रां शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
 
यह गर्वोक्ति फिर से हम कर सकें ऐसे हमारे समाज के सब लोग हों। इसलिये ज्ञान सम्पन्न देश चाहिए। सामर्थ्य सम्पन्न, शील सम्पन्न, ज्ञान सम्पन्न और संगठित होना पड़ेगा। विविधताओं का एक सुन्दर हार पुष्पांें का गूंथकर उससे अपने देश को सजाना पड़ेगा। सबको एक आना पड़ेगा, हो सकता है असंभव नहीं है। कितने भी कड़े विवाद हो, बैठकर हल निकाला जा सकता है। बशर्ते भारत का हित सबके मन में हो, अपने पूर्वजों का गौरव सबके मन में हो और इस संस्कृति के बारे में श्रद्धा मन में हो। वो जोड़ने वाली बात है। उसको हम हिन्दुत्व कहते हैं। उसके प्रति श्रद्धा रखकर बात होती है तो सारे प्रश्नों का हल निकलता है, हम एक होकर खड़े हो सकते हैं, होना आवश्यक है। सुसंगठित, और दुनिया को उपदेश करने जायेंगे तो देश का जीवन सर्वांग सुन्दर होना चाहिए। इसलिये समतायुक्त शोषणमुक्त और विश्व के लिए सद्भावना मन में लेकर चलने वाला, अगर ऐसी स्थिति में हमारा विजन डाक्यूमेंट बना तो वह अपने साम्राज्य के विस्तार का नहीं बनेगा। विजन डाक्यूमेंट अपने आर्थिक विस्तार का नहीं बनेगा। विजन डाक्यूमेंट दुनिया के ऐसे जो पिछड़ गये हैं देश, पिछड़ गया है समाज उनको बराबरी में लाने का विजन डाक्यूमेंट होगा। बिना किसी की हानि किये सबको कल्याण पथ चलाने वाला हमारा विजन डाक्यूमेंट होगा। ऐसा देश हमको चाहिए। भारत त्रस्त मानवता को नया संजीवन प्रदान करके सर्वसमन्वय साधने वाले संतुलन के और सर्वसमन्वय साधने के लिए जो अनुशासन चाहिए उस अनुशासन के मार्ग पर चलायेगा और चलायेगा यानी दंड से नहीं चलायेगा। स्वयं के उदाहरण से उनके मन में अपने प्रति सम्मान कर दो ऐसे चलायेगा। सबके प्रति मन में अतीव कल्याण की भावना लेकर चलाएगा। ऐसा देश चाहिए। अब ये मेरे अपने विचार हैं क्या आज तो मैं बोल रहा हूं लेकिन ये अपने देश का सनातन विचार है। अपने देश के विजन के बारे में जब किसी ने बोला है यही बोला है। प्रसिद्ध कविता है। रविन्द्र नाथ की। चित्त जथा भयो शून्य, उन्न को देखा शिव, उसका अनुवाद भी हुआ है। लेकिन एक्यूरेट अनुवाद, नियरली अनुवाद अंग्रेजी मुझे लगा। इसलिये मैं वह अनुवाद पढ़ता हूँ। गीतांजली में कविता है नैवैद्य नाम का संग्रह है उसका अंश- अब उसमें एक सुधार किया है। उस कविता में अंत में रवीन्द्र नाथ जी ने कहा है कि हे परमपिता अपने कठोर हाथ से एक आघात हमारे देश पर करो और उसको ऐसी दुनिया में जागृत करो। वो आघात वाली बात अंग्रेजी ट्रांसलेशन में नहीं है। लेकिन सीधे से नहीं मानता तो भगवान हमको ऐसे ताड़न पकड़कर चलायेगा कान पकड़कर क्योंकि हमारा नियति दूषित नहीं हो सकती। हम सीधे से जायें उस पर यह बहुत अच्छी बात है। नहीं तो भगवान मारेगा। यह अंग्रेजी ट्रांसलेशन में नहीं है। रवीन्द्र नाथ बंगाल में थे। स्वातंत्र्य सांवरकर ने यही कहा। जो-जो उत्तम, उदात्त, उन्नत, महन मधुर एहसास, स्वतंत्रता भगवती तुम्हारे साथ अवतरित हो हमारे देश में। स्वतंत्रता देवी की प्रसिद्ध आरती, मराठी में। उसमें यही कहा गया है। हम अपने स्वतंत्र भारत की कल्पना इसी प्रकार से करते हैं और ऐसे भारत को खड़ा करने वाला समाज कैसा होना चाहिए, उसमें भी कोई अलग बात मैं नहीं करता हूँ। अपने समाज के किन दोषों का निपटरा होना चाहिए, इसके बारे में महात्मा जी ने सात सामाजिकताओं की बात की है। उन पापों को अपने जीवन से निपटकर हटाना पड़ेगा। उसके लिए स्वयं को संस्कारिता होना पड़ेगा। व्यक्ति निर्माण का काम उसी लिए चलता है। वो सात सामाजिकता गांधी जी की क्या कहते हैं? वेल्थ विदाउट वर्क, लेबर विदाउट कंसाइन्स, नॉलेज विदाउट केरेक्टर, कॉमर्स विदाउट मॉरेलिटी, साइंस विदाउट ह्यूमिनिटी, रिलीजन विदाउट सेक्रीफाइज, पॉलिटिक्स विदाउट प्रिंसिपल।
 
आप चारों और अपने जीवन में नजर डालेंगे समाज के, स्वतंत्रता के बाद बहुत कुछ अच्छा हुआ है। लेकिन ये भी सर्वत्र दिखता है, इसको निपटे बिना उस स्वतंत्रता का सम्पूर्ण फल प्राप्त होना कठिन है। और इसके लिए सम्पूर्ण समाज को जुड़कर प्रयास करने पड़ेंगे। क्योंकि ये सारे पाप बाहर नहीं रहते, ये अपने मन में रहते हैं। अपने मन से लेकर तो सारे देश के आकाश को साफ करने का काम हमको करना पड़ेगा। प्रारंभ अपने से करना पड़ेगा। प्रारंभ करने के लिए संघ सबको बुलाता है। संघ का आह्वान यही है। इस अपनी पवित्र मातृभूमि का भाग्य बदलने के लायक बनों, सबको बनाओ और फिर हम सब मिल कर तय करेंगे सामूहिक विचार से, जो तय होगा वह होगा। शक्ति बनेगी ऐसी हमारी। ये संघ का मंतव्य है। वैसे समझने में बड़ा कठिन जाता है एकदम। आज की दुनिया में कोई अच्छा काम कोई करने गया तो लोग पहले पूछते हैं ये क्यों कर रहा है। ऐसी शंकित अवस्था समाज, मन में है। इसलिए भी कठिन जाता है। जानबूझकर अंधकार, भ्रम उत्पन्न करने वाले लोग भी काम करते हैं। उनका भी भला हो। उनके बारे में हमारी भावना बुरी नहीं है। उनका टेढ़ापन चला जाए, इतनी ही प्रार्थना है महाराज के शब्द में। लेकिन ऐसा होने के कारण इसको समझना पड़ता है। एक बार हमने सोचा कि प्रमुख लोगों को बुलाकर ये बात साफ-साफ आपके सामने रखी जाए कि संघ क्या करना चाहता है? क्यों करना चाहता है? संघ क्यों हिन्दुत्व की बात करता है? और संघ के सामने भारत का विज़न क्या है। वो चारों बातें मैंने आपके सामने रखी हैं। मैं चाहता हूँ कि ये सारा सुनकर आपके मन में कुछ स्पष्टता करने के लिए या कुछ और समझने के लिए जिज्ञासाएं आई हों, आप प्रश्न पेटी में डाल दीजिए। अब कितने प्रश्न आएंगे और कल के समय में उसका निपटारा कितना हो सकेगा। ये मैं नहीं बता सकता, लेकिन जितना अच्छा और जितना अधिक हो सकेगा। उतना करने का हम प्रयास करेंगे। बहुत-बहुत धन्यवाद।