आदि शंकराचार्य जयन्ती

Rashtriya Swayamsevak Sangh    16-May-2016
Total Views |

 

Adi Shankaracharya Jayanti

नई दिल्ली. मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि आदि शंकराचार्य के जन्म को ध्यान में रखते हुए आज के दिन को फिलॉस्फर दिवस के रूप में मनाना स्वागत योग्य कदम है. पाश्चात्य जगत का शब्द फिलॉस्फर जिसको भारत के दार्शनिक से जोड़ा जाता है, यह सही नहीं है. पाश्चात्य जगत में फिलॉस्फर बड़े विद्वान लोग होते हैं, वे गहराई से भूतकाल का, भविष्य का, वर्तमान का एनालाइसिस (विश्लेषण) करके समाज के सामने चिंतन करते हैं, उनको हम लोग फिलॉस्फर कहते हैं. भारत का दार्शनिक इससे थोड़ा सा भिन्न है, भारत का दार्शनिक अपने अंदर देखता है. भारत का धीर योगी दार्शनिक आंख बंद कर, बाहर की क्रियाओं को बंद करता है और अंदर देखता है, अंदर झांकता है कि मैं कौन हूं, मेरे अंदर कौन है, जो मेरे अंदर है, वही सबके अंदर है क्या? एकात्मा बोध को जो साक्षात कर देता है, उसको भारत में ‘दार्शनिक’ कहते हैं. यह जरूरी नहीं कि भारत का दार्शनिक बहुत अधिक विद्वान होगा, उसने बहुत सारे ग्रंथ पढ़े होंगे. जैसे रामकृष्ण परमहंस किसी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़े, पर बड़े दार्शनिक थे. जो दूसरों के मन में देखता है, दूसरों की अंतर्आत्मा को देखता है और देखता है कि मैं और आप एक ही हैं, दो हैं ही नहीं. यह भारत के दार्शनिकों की परंपरा है. पाश्चात्य जगत का फिलॉस्फर फिलॉस्फी देता है, साहित्य देता है, सिद्धांत देता है कि आप उस पर चलिए. भारत का दार्शनिक ऐसा नहीं करता, भारत का दार्शनिक जो देखता है, उसको अपने जीवन में जीता है. उसको अपने जीवन में उतार देता है, इसलिए भारत का दार्शनिक एक अलग स्थान रखता है. आदि शंकराचार्य उसी महान परंपरा के एक महान व्यक्तित्व हैं.

 

आदि शंकराचार्य के जन्म दिवस के अवसर पर नवोदय एवं फेथ फाउंडेशन द्वारा राष्ट्रीय फिलॉस्फर दिवस के रूप में कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें युवा फांउडेशन तथा ग्लोबल सोसायटी ने भी सहयोग किया. फाउंडेशन के सदस्यों ने मिट्टी कलश में एकत्र करके केदारनाथ में जहां से शंकराचार्य जी शिवलोक को गए, वहां उस कलश को खाली करके उस जमीन को प्रणाम किया. इससे संबंधित एक वृत्तचित्र प्रदर्शन से आदि शंकराचार्य जी के जीवन से जुड़े विभिन्न स्थानों की जानकारी दी गयी. इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पुस्तक ‘मन की बात’ का लोकार्पण भी किया गया. कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित कार्यक्रम में मंच से केन्द्रीय संस्कृति मंत्री डॉ. महेश शर्मा, अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे. नंदकुमार जी, साध्वी जया भारती, स्वामी संतोषानन्द, नवोदय फांउडेशन के अध्यक्ष डॉ. कैलाशंथा पिल्लई, कर्नल अशोक किनी तथा पी. रामचन्द्रन ने आदि शंकराचार्य के जीवन पर प्रकाश डाला.

 

डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने आदि शंकराचार्य जी के बारे में कहा कि केरल के कालडी में पैदा हुआ यह छोटा सा बालक, बाल्यावस्था में ही जिनके पिताजी गुजर गए. यज्ञोपवीत के बाद, 8 वर्ष में सन्यास लिया, 16 वर्ष में ज्ञान प्राप्त किया, 32 वर्ष में चले गए. 8 वर्ष की आयु में सन्यास लेकर आगे बढ़ना यह उस युग की मांग थी, आवश्यकता थी. उस समय देश की महान वैदिक परंपरा पर संकट आ गया था. उस काल में भगवान बुद्ध ने राजगृह त्याग कर करुणा, ममता, प्रेम, अहिंसा का संदेश दिया था. उनके विलक्षण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर राजा-महाराजा सहित हजारों लोग उनके पीछे चल पड़े. देखते ही देखते बौद्ध मत सारे देश में छा गया. भगवान बुद्ध जब चले गए, लेकिन उन्होंने कुछ बातों का उत्तर नहीं दिया. उन्होंने सोचा कि इस पर विवाद होगा कि ईश्वर होता है कि नहीं होता, पुनर्जन्म, कर्मफल होता है कि नहीं होता? ऐसे अनेक प्रश्न थे. इसका उत्तर देना ठीक नहीं है, इनके उत्तर की आवश्यकता नहीं है. लेकिन भारत की परंपरा में यह बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं. भारत का अध्यात्म इस पर टिका है. सारी सृष्टि को संचालित करता कौन है. भगवान बुद्ध का व्यक्तित्व ऐसा था कि तब लोग शांत हो गए. लेकिन उनके जाने के बाद लोग शांत नहीं रहे. प्रश्न पर प्रश्न आए, बंटवारा हुआ. हेनयान, महायान हो गया, बहुत प्रकार की परंपराएं चलने लगीं और धीरे-धीरे लोगों को लगा कि यह क्या हो गया है. समस्या आ गई, लोगों को लगा कि इससे तो हमारा पुराना वैदिक धर्म ही अच्छा था. ठीक है, पुराने में कुछ विकृतियां थीं, इतने बड़े-बड़े लम्बे महायज्ञ होते थे, पशुबलि भी हो जाती थी. लोग उससे उकता गए, इसलिए बुद्ध की शरण में आए. अब यहां आकर उकता गए कि अब कहां जाएं. यह बड़ा वैचारिक और दार्शनिक संकट उस समय लोगों के सामने खड़ा हो गया. इस परिस्थिति में शंकर खड़े होते हैं. कठिन काल था, वैदिकों के लिए, वैदिक परंपरा को मानने वाले लोगों के लिए भी संकट काल था.

 

Adi Shankaracharya Jayanti

 

 

 

उन्होंने बताया कि उस समय बौद्ध मत को मानने वालों में भी नागार्जुन जैसे बड़े-बड़े प्रकांड विद्वान थे, जो बौद्ध मत के विस्तार में लगे थे. लेकिन अब नया संकट खड़ा था, वैचारिकता, व्यवहारिकता, आध्यात्मिकता का. समाज कौन से मार्ग को अपनाए, यह बड़ा कठिन प्रश्न खड़ा था. ऐसे में शंकर खड़ा होता है, यज्ञोपवीत में भिक्षा मांगने अपने गांव के दूर कोने में सफाई करने वाली महिला के घर में जाकर कहता है, ‘माँ भिक्षाम देहि’. लोगों को समझ में आ गया कि यह कोई सामान्य बालक नहीं है. नहीं तो यज्ञोपवीत में बच्चे अपने कुल-खानदान में भिक्षा मांगने जाते हैं. सन्यास लेकर शंकर काशी आ गए, काशी में अध्ययन के साथ बहुत छोटी 12-13 वर्ष की अवस्था में अध्यापन भी किया. वहां चांडाल मिल गया, शंकराचार्य के शिष्यों ने उसे दूर हटो कहा. चांडाल इस पर हंसने लगता है, चांडाल समझ गया कि उनमें शंकर ही सबसे विद्वान है तो उनसे कहता है, महाराज दूर हटो किसको कहते हैं आप. वह कहता है कि आपका शरीर और मेरा शरीर दोनों अन्न से बने हैं, वही अन्न आपने खाया है और वही अन्न मैंने खाया है, और ऐसा नहीं है तो जो चैतन्य आपके अंदर है, वही चैतन्य मेरे अंदर है तो किसको दूर हटने को कहते हैं आप. शंकर कहते हैं यदि कोई भी व्यक्ति है जो यह जानता है, अनुभव करता है कि चींटी के अंदर हो या हाथी के अंदर, किसी भी मनुष्य के अंदर हो, जीव के अंदर हो, ब्रह्म एक ही है, वो चांडाल हो या ब्राह्मण वो मेरे लिए गुरु के समान है. शंकराचार्य केवल एक दर्शन देने वाले व्यक्ति नहीं थे. उसको जीने वाले व्यक्ति थे, अनुभव करने वाले व्यक्ति थे. आत्मा एक है, वो दो नहीं है, वो चाहे राजा की आत्मा हो या रंक की, विद्वान की आत्मा हो या निरक्षर की इन दोनों की आत्मा में अंतर नहीं होता. इसी सिद्धान्त को लेकर शंकराचार्य जी आगे बढ़ते हैं और स्थापित करते जाते हैं कि जो आत्मा है, वो परमात्मा का ही अंश है. उसका वर्णन करते करते भिन्न-भिन्न प्रकार के शास्त्रों का, ग्रंथों का, श्लोकों की रचना का, उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया. बहुत छोटी सी आयु में सबसे पहला काम उन्होंने गीता और बारह उपनिषद पर भाष्य लिख कर किया.

 

उन्होंने कहा कि बहुत कम लोगों को ध्यान होगा कि गीता उस काल में लुप्तप्राय थी, ध्यान में नहीं थी. शंकराचार्य पिछले 2000 साल में पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने गीता को वहां से निकालकर सबके सामने रखा. शंकराचार्य ने कहा कि जो शाश्वत सत्य है, वह शिव है. यहां शिव का अर्थ मूर्ति का शिव नहीं, शिव का अर्थ परब्रह्म, ईश्वर वह निराकार है, वही सत्य है. यह दिखने वाला जगत जो है, वह सिनेमा की तरह है, रील की तरह चलता है, स्लाइड की तरह बदलता है. कुछ भी स्थिर नहीं है, जैसे माता-पिता, भाई-दोस्त, भवन-भोजन, कपड़ा सब दिखने वाले तत्व अशाश्वत है. उस समय की परिस्थिति में जब हजारों तरह की पूजा पद्धति शुरु हो गई थी, तब पांच तरह की सरल पूजा को उन्होंने स्थापित किया. उन्होंने शिव, विष्णु, सूर्य, गणेश और शक्ति इन पांच पूजा पद्धति में सबको आने को कहा. लेकिन यह भी बताया कि यह पूजा एक साधन है साध्य को प्राप्त करने का, सगुण से निर्गुण की ओर बढ़ने का. धान के बीज के अंदर निकलने वाले चावल के ऊपर की जो भूसी होती है, वह किसी काम की नहीं होती, उपयोगी चावल है, निरुपयोगी धान का छिलका है, लेकिन जब हम धान का पौधा बोते हैं तो धान को उस छिलके के साथ बोना होता है. आदि शंकराचार्य भी भिन्न-भिन्न प्रकार की पूजा-पद्धति को साधना बता रहे हैं कि यह चावल के छिलके की तरह हैं. जो शाश्वत है तो तत्व रूप शिव अलग है. उसको प्राप्त करने के लिए सारी साधना है.


सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि उस समय में कैसी दूरदृष्टि रही होगी उनकी कि वेद का जो वैचारिक दर्शन था, उससे भौगोलिक रूप से देश को कैसे एक करें. आदि शंकराचार्य ने इसके लिए बौद्ध के अनुयाइयों को भी साथ ले लिया. वो सबको लेकर चलते हैं, भगवान बुद्ध को कहा अरे आप तो हमारे विष्णु के अवतारों में से एक हैं, उन्हें विष्णु का अवतार मान लिया. समग्र भारत की राष्ट्रीय भौगोलिक एकता के लिए उन्होंने केरल से उत्तर में केदारनाथ, बद्रीनाथ, पूर्व में आसाम के घने जंगलों से होते हुए पश्चिम में द्वारका वहां से जगन्नाथ पुरी, अनेक क्षेत्रों में पद यात्राएं की. अयोध्या गए, कुरुक्षेत्र गए, काशी गए, प्रयाग गए, हरिद्वार गए, कोई भी ऐसा तीर्थ नहीं है जहां वे नहीं गए हों. उन्होंने सारे देश का लगभग दो बार पैदल भ्रमण किया. कोई किनारा नहीं छोड़ा रामेश्वरम से लेकर केदार बद्री तक, उधर द्वारका से लेकर जगन्नाथ कामाख्या तक. उनमें प्रचंड तेजस्विता थी, बौद्धिक क्षमता थी, विनम्रता थी, संगठन की कुशल शक्ति थी. सारे देश के वैचारिक अधिष्ठान को एक भौगोलिक एकत्व में बांधने का संकल्प था आदि शंकराचार्य का. इसके लिए देश के चार अलग-अलग छोरों पर चार अलग-अलग मठ स्थापित किए. चारों वेदों के लिए साधना के केन्द्र बना दिए. दसनामी अखाड़े खड़े कर दिए. त्याग-वैराग्य का जीवन खड़ा कर दिया. इन मठों के अधिपतियों के लिए अनुशासन बना दिया. आपको यह करना है, यह नहीं करना. बहुत कठोर अनुशासन बनाया है. इस देश के शाश्वत दर्शन को फिर से पुण्य प्रवाह में लाने का काम आदि शंकराचार्य ने किया. इसलिए वे केवल फिलॉस्फर नहीं थे, वे दार्शनिक थे. जो देखा उसको जिया, अपने कृतत्व से साबित करके वो गए. यह भारत की परंपरा और विशेषता है, जब अनेक बार ऐसे संकट भारत में आते हैं कि क्या करें, क्या न करें, ऊहापोह रहता है, तब कोई न कोई ऐसा व्यक्ति खड़ा होता है जो फिर से हमारे इस दर्शन पर जमी हुई राख को हटा देता है. फिर से अपने इस दर्शन को, मौलिक शाश्वत मूल्यों के और भी निकट ले आता है. इसलिए वे केवल दार्शनिक ही नहीं समाज सुधारक भी थे, वे कवि थे, विद्वान थे, वे सारे देश की एकता के वाहक थे. शंकर निराशा के क्षणों से आशा का, विश्वास का, एक नई सृष्टि का संदेश देता है. ईश्वर से मिले कुल 32 वर्ष के सीमित जीवन काल में ही आदि शंकराचार्य जी ने 300 वर्ष के बराबर कार्य कर के दिखाया. इसलिए आज इस दार्शनिक के जन्मदिन पर हम लोग अपने शाश्वत दर्शन को स्मरण करें. कुरीति, ढोंग-पाखंड इसको हटाने का हमको संकल्प लेना है, तभी शंकर की शाश्वतता हमारी आंखों के सामने, हमारे हृदय में जीवित रहेगी.


केन्द्रीय संस्कृति मंत्री डॉ. महेश शर्मा ने कहा कि आदि शंकराचार्य जी के जन्मदिवस पर फिलॉस्फर दिवस मनाने का फैसला मील का पत्थर साबित होगा. यह आने वाली पीढ़ियों के लिए शुभ संकेत है. जब जब हम कभी विश्व पटल पर बात करते हैं, कभी हम बिलियन और ट्रिलियन फोरेन रिजर्व की बात नहीं करते. हम बात करते हैं, भारत की धनी संस्कृति की, रिच हैरिटेज की, कल्चर की, वही हमारी पहचान है. एक फिल्मी डायलॉग है जिसमें कहते हैं कि ‘मेरे पास मां है’, हम कहते हैं हमारे पास भारत की धनी संस्कृति है, हमारे पास आदि शंकराचार्य हैं और यह हमारी मूल भावना का केंद्र बिंदू हैं. किसी भी व्यवस्था की जब हम शुरूआत करते हैं तो उस पर प्रश्न चिन्ह उठते हैं. हमारी प्राचीन संस्कृति, ज्ञान को विश्व के कोने-कोने में पहुंचाने का काम संस्कृति मंत्रालय के माध्यम से कर रहा हूं. देश का युवा जब बाहर विश्व में घूमने जाए उससे पहले वो भारत की धनी संस्कृति का अध्ययन करे. भारत का युवा अपने देश के प्राचीन ज्ञान और संस्कृति का अध्ययन करे, उसके बाद ही वो दुनिया के बाकी देशों में जाए.

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह प्रचार प्रमुख जे. नंदकुमार जी ने कहा कि आदि शंकराचार्य ने पूरे विश्व के लिए आत्मदर्शन का अमृत दिया. उनके जन्मदिवस पर यह आयोजन नवोदय, फेथ फांउडेशन, यूथ फांउडेशन तथा ग्लोबल सोसाइटी द्वारा किया जा रहा एक पवित्र प्रयास है. नवोदय से आह्वान किया कि बच्चों के लिए भी सनातन धर्म का जो दर्शन, वेद, पुराण, उपनिषद, सनातन धर्म की अपनी जो विरासतें हैं, इसको सिखाने के लिए कम से कम एक साप्ताहिक व्यवस्था करनी चाहिए. हम सबको मालूम है कि आज इस दर्शनशास्त्र के अभाव से धर्म की जानकारी न होने के कारण जिस तरह का परिप्रेक्ष्य उभर कर आ रहा कि भारत की बर्बादी तक लोग जंग करने के लिए आ रहे हैं. इसलिए अपने बच्चों को, विद्यार्थियों को, इस तरह की शिक्षा देने के लिए कुछ इन्फार्मल सिस्टम खड़ा करने के लिए भी हम सब को मिलकर सोचने की आवश्यकता है.

 

दिव्य ज्योति जाग्रति फाउंडेशन की साध्वी जया भारती ने कहा कि सत्य जैसा है जब वैसा दिखे, जब आपकी अपनी सोच उसको प्रभावित न करे, जब आपकी परिस्थिति से प्रभावित आपकी सोच उसका आकलन न करे, यह सत्य जेसा है वैसा दिखे, उसे दर्शन कहते हैं. तीन चार शब्दों में आदि गुरु शंकराचार्य ने बता दिया कि सत्य है. ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है. संसार में सब कुछ बदलता रहता है, जो नहीं बदलता वह है आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म. यही शाश्वत सत्य है. आदि गुरु शंकराचार्य ने देश के युवा को उसकी जड़ से जोड़ दिया और जिस देश के युवा को उस देश की जड़ से जोड़ दिया जाए तो वो देश हरा भरा हो जाता है, लहलहाने लगता है. हम उस देश से हैं, जहां ईश्वर सिर्फ सिद्धान्त नहीं है, ईश्वर देखा गया और इस ईश्वर के दर्शन से ही दर्शन शास्त्र बना. जो ईश्वर के दर्शन से निकली व्यवस्था होती है, उसे सनातन धर्म कहते हैं, इसी से देश चलता है, देश की राजनीति चलती है, क्योंकि धर्म के बिना राजनीति ऐसी ही है जैसे प्राणों के बिना शरीर सड़ जाता है. हम आदि शंकराचार्य जी की संस्कृति के अनुयायी है, यदि हम उनका आभार प्रकट करना चाहते हैं तो हमें अपने आचरण में उनके सिद्धांतों को लाना पड़ेगा जैसे स्वामी विवेकानन्द जी लाए.